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Activities

11 नवम्बर 2023

विष्णुप्रिया भगवती लक्ष्मी-डॉ. मनीषा शर्मा

डॉ. मनीषा शर्मा
प्राचार्य
राजस्‍थान शिक्षक प्रशिक्षण विद्यापीठ, जयपुर

भगवती महालक्ष्मी मूलतः भगवान् विष्णु की अभिन्न- शक्ति हैं और सूर्य एवं उनकी प्रभा तथा अग्नि की दाहिका- शक्ति एवं चन्द्रमा की चन्द्रिका के समान वे उनकी नित्य सहचरी हैं। पुराणों के अनुसार वे पद्मवनवासिनी, सागरतनया और भृगु की पत्नी ख्याति की पुत्री होने से भार्गवी नाम से विख्यात हैं। इन्हें पद्मा, पद्मालया, श्री, कमला, हरिप्रिया, इन्दिरा, रमा, समुद्रतनया, भार्गवी, जलधिजा इत्यादि नामों से भी अभिहित किया गया है। इनके कई शतनाम तथा सहस्रनाम स्तोत्र उपलब्ध होते हैं। ये वैष्णवी शक्ति हैं। भगवान् विष्णु जब-जब अवतीर्ण होते हैं, तब-तब वे लक्ष्मी, सीता, राधा, रुक्मिणी आदि रूपों में उनके साथ अवतरित होती हैं। महाविष्णु की लीला-विलास-सहचरी देवी कमलाकी उपासना वस्तुतः जगदाधार-शक्ति की ही उपासना है। इनकी कृपा के अभाव से जीव में ऐश्वर्य का अभाव हो जाता है। विश्वम्भर की इन आदिशक्ति की उपासना आगम निगम सभी में समान रूप से प्रचलित है। इनकी गणना तान्त्रिक ग्रन्थों में दस महाविद्याओं के अन्तर्गत कमलात्मिका नाम से हुई है।


पुराणों के अनुसार प्रमादग्रस्त इन्द्र की राज्यलक्ष्मी महर्षि दुर्वासा के शाप से समुद्र में प्रविष्ट हो गयीं फिर देवताओं की प्रार्थना से जब वे प्रकट हुईं, तब उनका सभी देवता, ऋषि- मुनियों ने अभिषेक किया और उनके अवलोकन-मात्र से सम्पूर्ण विश्व समृद्धिमान् तथा सुख-शान्ति से सम्पन्न हो गया। इससे प्रभावित होकर इन्द्र ने उनकी दिव्य स्तुति की, जिसमें कहा गया है कि लक्ष्मी को दृष्टिमात्र से निर्गुण मनुष्य में भी शील, विद्या, विनय, औदार्य, गाम्भीर्य, कान्ति आदि ऐसे समस्त गुण प्राप्त हो जाते हैं, जिससे मुनष्य सम्पूर्ण विश्व का प्रेम तथा उसकी समृद्धि प्राप्त कर लेता है। इस प्रकार का व्यक्ति सम्पूर्ण विश्व का आदर एवं श्रद्धा का पात्र बन जाता है-


त्वया विलोकिताः सद्यः शीलाद्यैरखिलैर्गुणैः ।
कुलैश्वर्यैश्च युज्यन्ते पुरुषा: निर्गुणा: अपि ॥ (विष्णुपु० १।९।१३०)


विश्व के प्राचीनतम ग्रन्थ ऋग्वेद के पञ्चम आत्रेय मण्डल का खिलसूक्त (श्रीसूक्त) देवी लक्ष्मी से ही सम्बद्ध है। पुराणों तथा रामायण-महाभारतादि आर्ष ग्रन्थों के अनुसार इनके 'विष्णुपत्त्री' रूप की सर्वमान्यता है। ये सुवर्णवर्णा चतुर्भुजा अनिन्द्य सौन्दर्य से सम्पन्न हैं। सर्वाभरणभूषित कमल के आसन पर स्थित हो अपने कृपाकटाक्ष से भक्तों की समस्त कामनाओं की पूर्ति करती हैं। इनकी उपासना अत्यन्त श्रेयस्करी है। श्रीसम्प्रदाय की आद्य प्रवर्तिका के रूप में इनका उल्लेख मिलता है। पुराणों में इनकी उत्पत्ति के सम्बन्ध में कई कथाएँ प्राप्त होती हैं। ब्रह्मवैवर्तपुराण के अनुसार सृष्टिके पहले रासमण्डल में स्थित परमात्मा श्रीकृष्णके मनसे एक गौरवर्णा देवी प्रकट हुईं, जो रत्नमय अलंकारों से अलंकृत थीं । उनके श्रीअङ्गों पर पीताम्बर सुशोभित हो रहा था और मुख पर मन्द हास्य की छटा थी। वे नवयौवना देवी सम्पूर्ण ऐश्वर्यों की अधिष्ठात्री तथा फल-रूप से सम्पूर्ण सम्पत्तियों को प्रदान करने वाली थीं। वे ही स्वर्गलोक में स्वर्गलक्ष्मी तथा राजाओं के यहाँ राजलक्ष्मी कहलाती है-

आविर्बभूव मनसः कृष्णस्य परमात्मनः ।
एका देवी गौरवर्णा रत्नालंकारभूषिता ।
पीतवस्त्रपरीधाना सस्मिता नवयौवना ।।
सर्वैश्वर्याधिदेवी सर्वसम्पत्फलप्रदा ।
सास्वर्गे च स्वर्गलक्ष्मीश्च राजलक्ष्मीश्च राजसु ।।(ब्रह्मवै०पु०, ख० ३। ६५-६६ )


इसी पुराण में समुद्रमन्थनोपरान्त सिन्धुसुतारूप में भगवती लक्ष्मी के प्राकट्य और विष्णु-वरण की भी बात आती है। समग्रतः लक्ष्मी की उत्पत्ति के विषय में यही कथा प्रायः सर्वानुमोदित है। अन्य देवियों की भाँति लक्ष्मीजी के भी कई ध्यान, स्तोत्र, कवच, पटल आदि प्राप्त होते हैं। भगवान् विष्णु के दिव्य शरीर में उनका वक्षःस्थल ही विशेष रूपये भगवती कमला का निवास स्थान निरूपित किया गया है। भगवान् विष्णु और लक्ष्मी का परस्पर अभेद-सम्बन्ध है। जगत्पिता भगवान् विष्णु जैसे सर्वव्यापक हैं, उसी प्रकार उनकी दिव्य शक्ति महालक्ष्मी भी सर्वव्यापिका हैं।

देवी लक्ष्मीका ध्यान

देवी महालक्ष्मी आदिभूता, त्रिगुणमयी और परमेश्वरी हैं। व्यक्त और अव्यक्त-भेद से उनके दो रूप हैं। वे उन दोनों रूपों से सम्पूर्ण विश्व को व्याप्त करके स्थित हैं। स्त्री रूप में इस संसार में जो कुछ भी दृश्यमान है, वह सब लक्ष्मीजी का ही विग्रह है। भगवती महालक्ष्मी के अनेक ध्यान हैं, यहाँ शारदातिलक से एक ध्यान-श्लोक दिया जा रहा है-


कान्त्या काञ्चनसंनिभां हिमगिरिप्रख्यैश्चतुर्भिर्गजै- हस्तोत्क्षिप्तहिरण्मयामृतघटैरासिच्यमानां श्रियम् ।
बिभ्राणां वरमब्जयुग्ममभयं हस्तैः किरीटोज्ज्वलां क्षौमाबद्धनितम्बबिम्बलसितां वन्देऽरविन्दस्थिताम् ॥(218)’


जिनकी कान्ति सुवर्ण-वर्ण के समान प्रभायुक्त है और जिनका हिमालय के समान अत्यन्त ऊँचे उज्ज्वल वर्ण के चार गजराज अपनी सूँड़ों से अमृत-कलश के द्वारा अभिषेक कर रहे हैं, जो अपने चार हाथों में क्रमशः वरमुद्रा, अभयमुद्रा और दो कमल धारण किये हुई हैं, जिनके मस्तक पर उज्ज्वल वर्ण का भव्य करीट सुशोभित है, जिनके कटि प्रदेश पर कौशेय (रेशमी) वस्त्र सुशोभित हो रहे हैं। ऐसी कमल पर स्थित भगवती लक्ष्मी की मैं वन्दना करता हूँ।’

लक्ष्मीजी का निवास स्थान


जिस स्थान पर भगवान् श्रीहरि की चर्चा होती है और उनके गुणों का कीर्तन होता है, वहीं पर सम्पूर्ण मङ्गलों को भी महल प्रदान करने वाली भगवती लक्ष्मी सदैव निवास करती हैं। जहाँ भगवान् श्रीकृष्ण का तथा उनके भक्तों का यश गाया जाता है, वहीं उनकी प्राणप्रिया भगवती लक्ष्मी सदा विराजती हैं। जिस स्थान पर शङ्खध्वनि होती है तथा शङ्ख, तुलसी और शालग्राम की अर्चना होती है, वहाँ भी लक्ष्मी सदा स्थित रहती हैं। इसी प्रकार जहाँ शिवलिङ्गकी पूजा, दुर्गा की उपासना, ब्राह्मणों की सेवा तथा सम्पूर्ण देवताओं की अर्चना की जाती है, वहाँ भी पद्ममुखी साध्वी लक्ष्मी सदा विद्यमान रहती हैं।


आमलक - फल, गोमय, शङ्ख, शुक्ल वस्त्र, श्वेत एवं रक्त कमल, चन्द्र, महेश्वर, नारायण, वसुन्धरा और उत्सव - मन्दिर आदि स्थानों पर लक्ष्मी नित्य ही स्थित रहती हैं। ब्रह्मपुराण (गोदावरी-माहात्म्य) तथा विष्णुस्मृति में भगवती लक्ष्मी के निवास भूमियों का बड़े रम्य श्लोकों में वर्णन हुआ है। लक्ष्मीव्रत का विधान है, इससे ऐश्वर्य, सौभाग्य, धन, पुत्री प्राप्ति होती है। लोक-परम्परा में आश्विन पूर्णिमा (पूर्णिमा) और कार्तिक अमावास्या (दीपावली) को लक्ष्मीजी की पूजा की जाती है। प्रकाश और समृद्धि की देवी के रूप में विष्णु की शक्ति लक्ष्मी का दीपमालिकोत्सव से भी सम्बन्ध है। उस दिन अर्धरात्रि में इनकी विशेष पूजा होती है। पुराणों और आगमों में इनके अनेक स्तोत्र हैं, जिनमें इनके चरित्र भी उपनिबद्ध हैं। इन सभी स्तोत्रों में इन्द्र द्वारा किया गया संस्तवन श्री स्तोत्र सर्वाधिक विख्यात है। वह अनि, विष्णु तथा विष्णुधर्मोत्तर आदि पुराणों में प्रायः यथावत् रूप में प्राप्त होता है। राष्ट्रसंवर्धन और राज्यलक्ष्मी के संरक्षण के लिये इसका पाठ विशेष श्रेयस्कर माना गया है। इनकी दशाङ्ग-उपासना की सम्पूर्ण विधि पटल, पद्धति, शतनाम, सहस्रनाम आदि स्तोत्रों और श्रीसूक्त के सम्पूर्ण विधान लक्ष्मीतन्त्र आदि विविध आगमों में प्राप्त है, जिनका एकत्र संग्रह शाक्त प्रमोद में श्रीकमलात्मिका प्रकरण में प्राप्त होता है। सौभाग्य लक्ष्मी-उपनिषद् में भी इनकी उपासना की सम्पूर्ण विधि प्रतिपादित है । इनकी आराधना से धर्म, अर्थ, काम, मोक्षरूपी पुरुषार्थ-चतुष्टय की प्राप्ति एवं अनेक प्रकार के अभीष्टों की सिद्धि सहज में हो जाती है।

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